राष्ट्रीय एकता का बीज : संघ स्थापना की पृष्ठभूमि’

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में है, और इन 100 वर्षों पर सो दिवसीय विशेष आलेख श्रृंखला का प्रथम दिन विनोद कुमार जी (प्रांत प्रचार प्रमुख)की कलम से…

व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण का ध्येय’ भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है – ‘संगठन और समर्पण’। जब-जब समाज विखंडित हुआ, आत्मविश्वास डगमगाया और पराधीनता की बेड़ियाँ मजबूत हुईं, तब-तब इस भूभाग ने कोई न कोई शक्ति उत्पन्न की। इस शक्ति ने राष्ट्र को जाग्रत कर आत्मविश्वास का संचार किया। ऐसी ही शक्ति का स्वरूप है – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।इतिहास केवल अतीत का ब्योरा भर नहीं है, बल्कि यह वर्तमान और भविष्य के निर्माण का मार्गदर्शक है। संस्कृत में “इतिहास” का अर्थ ही है – “इति-ह-आस” अर्थात् ऐसा ही हुआ। राष्ट्र जीवन के उत्थान और पतन के पीछे कुछ गहरे कारण छिपे रहते हैं।

समाज के चरित्र और चेतना में स्थायी परिवर्तन आवश्यक :

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक प. पू. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने अपने जीवन काल में समाज, धर्म, राजनीति और क्रांतिकारी आंदोलनों से गहन रूप से जुड़कर उनका अध्ययन किया। वे अनेक आंदोलनों में नेतृत्वकारी भूमिका निभाते हुए भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि केवल आंदोलनों के सहारे राष्ट्र का स्थायी पुनरुत्थान संभव नहीं है। इसके लिए समाज के चरित्र और चेतना में स्थायी परिवर्तन आवश्यक है। डॉ. हेडगेवार जी ने राष्ट्र की पराधीनता के मूल कारणों को तीन प्रमुख बिंदुओं में स्पष्ट किया। पहला, आत्मविस्मृति—समाज अपने गौरवशाली अतीत, हिन्दुत्व की श्रेष्ठता, राष्ट्रीय एकात्मता और सामाजिक समरसता को भूल चुका था। दूसरा, आत्मकेन्द्रित वृत्ति—जहाँ समाजहित की उपेक्षा कर व्यक्तिगत स्वार्थ और एकाकीपन प्रभावी हो गया था। तीसरा, सामूहिक अनुशासन का अभाव—जिसके कारण समाज विघटित हो गया और राष्ट्र परतंत्रता की ओर बढ़ा। इन्हीं कारणों से प्रेरित होकर डॉ. हेडगेवार ने यह निश्चय किया कि यदि राष्ट्र को पुनः सशक्त बनाना है तो समाज में आत्मगौरव, निःस्वार्थ भावना और अनुशासित संगठन का संस्कार करना होगा। यही विचार आगे चलकर संघ की स्थापना का आधार बने और राष्ट्रीय जागरण की दिशा में एक नयी शक्ति का संचार हुआ।

पराधीनता के समय संगठन का अभाव :

भारत पर मुस्लिम और ब्रिटिश आक्रमणों ने केवल राजनीतिक पराधीनता ही नहीं दी, बल्कि समाज और राष्ट्र-जीवन पर गहरे दुष्प्रभाव भी छोड़े। इन आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में प्रतिक्रियात्मक देशभक्ति का निर्माण हुआ। यह देशभक्ति भावनात्मक अवश्य थी, परंतु उसमें सकारात्मक, स्वाभाविक और दीर्घकालीन दृष्टि का अभाव दिखाई देता है। शताब्दियों की पराधीनता ने भारतीयों के भीतर आत्महीनता की भावना उत्पन्न की। अपनी भाषा, शिक्षा, जीवन मूल्यों, महापुरुषों और गौरवशाली इतिहास के प्रति स्वाभिमान शून्यता बढ़ी। यहाँ तक कि स्वयं को “हिन्दू” कहने में भी लज्जा का अनुभव होने लगा। इसी के साथ राष्ट्रीयता की भ्रामक अवधारणाएँ भी उभरीं। यह भाव कि “देश का भाग्य हिन्दू समाज से जुड़ा है” समाज में कमजोर पड़ गया। स्वतंत्रता आंदोलनों के समय नेतृत्व में आत्मविश्वास की कमी रही। मुस्लिम समाज को साथ रखने के लिए अनेक नेताओं ने राष्ट्रीयता के मूल सिद्धांतों और मानबिंदुओं को भी त्याग दिया। वन्दे मातरम् जैसे राष्ट्रगान को छोड़ने और खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने जैसी घटनाएँ इसी मानसिकता का परिणाम थीं।सबसे बड़ी कमी रही—संगठन का अभाव। समाज संगठित नहीं था, जिसके कारण अनेक आंदोलन बीच में ही टूट गए। कुछ व्यक्तियों के बल पर पूरे राष्ट्र की समस्याओं का समाधान संभव न था।

हिन्दू राष्ट्र है भारत :

अतः इतिहास हमें यह शिक्षा देता है कि संगठन, आत्मविश्वास और स्वाभिमान ही राष्ट्र की स्थायी स्वतंत्रता और प्रगति के आधार हैं। प. पू. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने स्पष्ट रूप से कहा कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और राष्ट्र की शक्ति ही सभी कार्यों की सफलता की आधारशिला है। उन्होंने समझाया कि शक्ति का सही उपयोग संगठन में ही संभव है। अतः समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए संगठन और अनुशासन अनिवार्य हैं। डॉ. हेडगेवार जी ने देखा कि समाज में आत्मविस्मृति, स्वार्थपरता और अनुशासनहीनता के कारण राष्ट्र पराधीन बना हुआ है। इन सभी दोषों को दूर करने और राष्ट्र में पुनः शक्ति, आत्मगौरव और राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए उन्होंने उपाय सुझाए। उनका विचार था कि केवल जागरूक व्यक्तियों का समूह ही राष्ट्र की प्रत्येक विपत्ति का सामना कर सकता है और स्वतंत्रता आंदोलन की रीढ़ बन सकता है।इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने स्वाभिमानी, संस्कारित, अनुशासित, चरित्रवान, शक्तिशाली और देशभक्ति से ओत-प्रोत व्यक्तियों के संगठन की आवश्यकता महसूस की। इन्हीं विचारों के आधार पर उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। शाखा रूपी अभिनव पद्धति :संघ का स्वरूप विशेष रूप से शाखा रूपी अभिनव पद्धति पर आधारित है, जो व्यक्तियों को प्रशिक्षित कर राष्ट्र और समाज की सेवा हेतु तैयार करती है।

डॉ. हेडगेवार जी का संदेश स्पष्ट था: केवल हिन्दू समाज का नहीं, सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन आवश्यक है। इसके लिए विशेष गुणयुक्त स्वयंसेवक तैयार किए जाएँ, जो अनुशासन, चरित्र और देशभक्ति में निपुण हों। यही विचार और सिद्धांत संघ की नींव बनकर आज भी समाज और राष्ट्र के उत्थान में मार्गदर्शन कर रहे हैं। हिन्दू जीवन में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति :राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तीन शब्दों से मिलकर बना है – राष्ट्रीय, स्वयंसेवक और संघ।राष्ट्रीय का अर्थ है वह व्यक्ति जिसका अपने देश, उसकी परंपराओं, उसके महापुरुषों और उसकी सुरक्षा एवं समृद्धि के प्रति पूर्ण निष्ठा हो। ऐसा व्यक्ति देश के सुख-दुःख, हार-जीत और शत्रु-मित्र की समान अनुभूति कर सके। राष्ट्रीयता केवल भावनात्मक ही नहीं, बल्कि जीवन के सभी पहलुओं में व्यावहारिक रूप से व्यक्त होनी चाहिए। डॉ. हेडगेवार जी के दृष्टिकोण अनुसार, अपने देश में राष्ट्रीयता के सभी आवश्यक तत्वों की पूर्ति हिन्दू समाज के जीवन में होती है। अतः हिन्दू समाज का जीवन ही राष्ट्रीय जीवन है और व्यवहारिक दृष्टि से राष्ट्रीय, भारतीय और हिन्दू शब्द पर्यायवाची हैं। जीवन पर्यंत स्वयंसेवक :स्वयंसेवक वह व्यक्ति है जो अपने अंदर की प्रेरणा से राष्ट्र, समाज, देश, धर्म और संस्कृति की सेवा करता है। यह सेवा निःस्वार्थ, अनुशासित और प्रमाणित रूप में होती है। स्वयंसेवक न केवल अपने कार्य के लिए किसी पुरस्कार या प्रतिफल की इच्छा नहीं रखता, बल्कि मातृभूमि की सेवा को परिपत्र, निरन्तर और योजनाबद्ध तरीके से करता है। संघ का मूल सिद्धांत यही है कि एक बार स्वयंसेवक हुआ तो वह जीवन पर्यन्त स्वयंसेवक रहता है। संघ केवल व्यक्तियों का समूह नहीं, बल्कि एक ऐसा संगठित, अनुशासित और समर्पित समाज निर्माण का माध्यम है, जो राष्ट्रीय चेतना और सेवा भाव को जीवन में स्थायी रूप से स्थापित करता है। इस प्रकार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ न केवल संगठन है, बल्कि राष्ट्रीय जीवन का आधार और स्वयंसेवा का प्रतिमान भी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में स्वयंसेवक केवल नाम का सदस्य नहीं, बल्कि संगठन के उद्देश्यों को जीवन में अपनाने वाला सक्रिय कार्यकर्ता होता है। स्वयंसेवक से न्यूनतम अपेक्षाएँ स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं। उसे प्रतिदिन निर्धारित वेश में, निश्चित समय पर शाखा में उपस्थित होना अनिवार्य है। शाखा में भाग लेने के बाद अन्य बन्धुओं से संवाद और संपर्क बनाए रखना, कुछ नवीन बन्धुओं को संघ से जोड़ना भी उसका दायित्व है। इसके माध्यम से संगठन सशक्त और निरंतर विकसित होता है।स्वयंसेवक का पड़ोसी धर्म भी संघ की सेवा में समाहित है। वह जहाँ रहता है, वहाँ के निवासियों से मधुर संबंध बनाए रखता है और उनके सुख-दुःख में यथासंभव सहयोग के लिए तत्पर रहता है।

व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण :

संघ का शाब्दिक अर्थ संगठन या समुदाय है। यह समान विचार, समान लक्ष्य और आत्मीय भाव से जुड़े व्यक्तियों का समूह है, जो एक ही पथ, रीति और पूर्ण समर्पण भाव से कार्य करता है। संघ का स्वरूप प्राकृतिक उदाहरणों से तुलना करके समझा जा सकता है—जैसे रस्सी के तंतु, मधुमक्खियों का छत्ता या मानव शरीर।

R.S.S. का अर्थ है Ready for Selfless Service संघ का स्वयंसेवक समाज सेवा में तत्पर, नियमित और चिर-विश्वसनीय होता है। यही गुण उसे संगठन और राष्ट्र के लिए अमूल्य बनाते हैं। एक बीते शतक में संघ ने जिस प्रकार लाखों व्यक्तियों को संस्कारित कर उन्हें समाजसेवा के पथ पर लगाया, वह अद्भुत है। आज संघ दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है जिसकी प्रेरणा से हजारों सामाजिक, शैक्षिक और सेवा संस्थाएँ कार्यरत हैं।शताब्दी वर्ष केवल संघ की उपलब्धियों का उत्सव नहीं है। बल्कि यह आने वाले सौ वर्षों की दिशा तय करने का अवसर है। यह वह कालखंड है जहाँ संघ का संदेश और भी गूंज रहा है –“संगठित भारत ही सशक्त भारत है।”संघ का संदेश सरल है – व्यक्ति निर्माण से समाज जागेगा, समाज जागेगा तो राष्ट्र शक्तिशाली बनेगा।

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